घर के ऑगन के जाल पर रक्खी
माँ के हाथों की बनाई खीर
खुले बर्तन में जाली से ढकी,
और भी कुछ कुछ जतन करती
मानो रह न जाये चाँद से बरसी
अमृत की कोई भी बूंद।
हर शरद पूर्णिमा
याद दिला जाती है वह बचपन
और माँ की ढेर सारी यादें
मानो अमृत पिला कर हमें
अमर कर देना चाहती थी वो
न रही अब माँ –शायद
सबको खिला कर न बचा पायी
अपने लिए वह अमृत की खीर
सोचता हूँ कभी कभी मैं
कि अमर तो मैं भी नहीं
तो क्या झूठी थीं
माँ की सब बातें
फिर समझ आया मुझको
ये इनसान नहीं रिश्तो को
अमर करने की शरद् पूर्णिमा है
माँ तुझे नमन् करने की पूर्णिमा है।
(शरद पूर्णिमा के अवसर पर ईशान हॉस्पिटल के वरिष्ठ प्लास्टिक सर्जन डॉ कौशल कुमार की यह मर्मस्पर्शी कविता)
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