सामूहिक दुष्कर्म के दोषी ने बच्चा पैदा करने के लिए कोर्ट से मांगी ‘रिहाई’, अब हाई कोर्ट को ढूंढने पड़ रहे कई सवालों के जवाब

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नैनीताल। नाबालिग से सामूहिक दुष्कर्म के मामले में सजायाफ्ता कैदी ने शॉट टर्म जमानत मांगी है। इसके लिए उसने जो वजह बताई है, उसने कोर्ट के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इसे देखते हुए कोर्ट ने उसकी प्रार्थना को अभी स्वीकार नहीं किया है, लेकिन इसे कैदियों से संबंधित पीआइएल से कनेक्ट करते हुए इस संवैधानिक सवाल पर व्यापक सुनवाई का निर्णय लिया है। कोर्ट ने इस मामले में सरकारी अधिवक्ता जेएस विर्क को न्याय मित्र नियुक्त किया है और उन्हें जिम्मेदारी दी है कि वह विस्तृत अध्ययन कर कोर्ट के सामने आए सवालों का जवाब ढूंढे।

आनंद बाग, हल्द्वानी निवासी सचिन ने हाई कोर्ट में याचिका दायर कर शॉर्ट टर्म जमानत मांगी है। याचिकाकर्ता का कहना है कि वह पिछले छह साल से जेल में बंद है। मुखानी थाने में उसके खिलाफ पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत मुकदमा दर्ज हुआ था। अब तक उसे जमानत नहीं मिली। 2016 में उसे निचली कोर्ट ने 20 साल की सजा सुनाई है। जब उसे न्यायिक हिरासत में भेजा गया था तब उसकी शादी को तीन माह ही हुए थे। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएस चौहान व न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के अधिवक्ता हिमांशु सिंह व सैफाली सिंह ने बहस की।

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उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने का अधिकार है। उसे वंश बढ़ाने के लिए बच्चा पैदा करने का अधिकार है। याचिकाकर्ता की पत्नी की आयु वर्तमान में 30 साल है, वह बच्चा पैदा करने की क्षमता रखती है। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में जेल के रूल्स के साथ ही अन्य संवैधानिक सवालों का भी जवाब तलाशना है। लिहाजा कोर्ट ने इस मामले की व्यापक सुनवाई करेगा।

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यह है अदालत के सामने सवाल

उत्तराखंड हाई कोर्ट में इस तरह का  मामला पहली बार आया है। ऐसे में कोर्ट के समक्ष भी कुछ अहम सवाल हैं।

  • क्या संगीन अपराध में बंद कैदी को इस आधार पर जमानत दी जा सकती है।
  • यदि जमानत मंजूर होने के बाद उसका बच्चा हो गया तो उसकी जिम्मेदारी कौन संभालेगा, क्या सरकार उसकी परवरिश की जिम्मेदारी उठाएगी।
  • यदि इस कैदी को जमानत दी जाए तो गंभीर मामलों में सजा काट रहे अविवाहित कैदी भी अपनी दोस्त के साथ जीवन बिताने के आधार पर जमानत मांग सकते हैं।
  • भीख मांगने वालों के भी बच्चे होते हैं तो उनकी परवरिश की जिम्मेदारी सरकार नहीं उठाती, फिर कैदी के मामले में यह तर्क क्यों?

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