दुःखद : पहाड़ी टोपी को पहचान दिलाने वाले कैलाश भट्ट नहीं रहे, शोक की लहर

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सोमवार को देहरादून में श्रीमहंत इंदिरेश अस्पताल में ली अंतिम सांस, पहाड़ी टोपी, मिरजई, झकोटा, आंगड़ी, त्यूंखा, सणकोट जैसे पारंपरिक परिधानों से नई पीढ़ी को कराया परिचित

न्यूज जंक्शन24, देहरादून : संस्कृति, संस्कार और उसका संरक्षण करने वाले विरले ही होते हैैं। वरना, ऐसी टीस हर किसी में अब कहां। लेकिन एक नाम था कैलाश भट्टï जिन्होंने पहाड़ी टोपी और पारंपरिक परिधान मिरजई को खास पहचान दिलाई। आज सोमवार को गोपेश्वर के हल्दापानी निवासी लोक के इस शिल्पी कैलाश भट्ट ने अंतिम सांस ली।

52-वर्षीय कैलाश पिछले काफी समय से बीमार थे और सोमवार को देहरादून के श्रीमहंत इंदिरेश अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। कैलाश जाने-माने रंगकर्मी भी थे। उनके आकस्मिक निधन से लोक संस्कृति से जुड़े लोग स्तब्ध हैं।

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16 वर्ष की उम्र से पारंपरिक परिधानों के निर्माण का कार्य कर रहे लोक शिल्पी कैलाश भट्ट ने अपने हुनर से मिरजई, झकोटा, आंगड़ी, गाती, घुंघटी, त्यूंखा, ऊनी सलवार, सणकोट, अंगोछा, गमछा, दौंखा, पहाड़ी टोपी, लव्वा जैसे पारंपरिक परिधानों से वर्तमान पीढ़ी को परिचित कराया। कैलाश ने श्री नंदा देवी राजजात की पोशाक ही नहीं, देवनृत्य में प्रयु्रक्त होने वाले लुप्त हो रहे मुखौटा को भी लोकप्रियता प्रदान की।

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लोक के सरोकारों से जुड़े संजय चौहान कहते हैं कि कैलाश जैसे लोकसंस्कृति के पुरोधा का इस तरह असमय चले जाना बेहद पीड़ादायक है। उनके जाने से जो रिक्तता पैदा हुई है, उसकी भरपाई संभव नहीं होगी। उनकी बनाई पहाड़ी टोपी और मिरजई की तो तमाम जानी-मानी हस्तियां प्रशंसक रही हैं। कैलाश रंगकर्म से भी जुड़े रहे और पहाड़ के लोक से जुड़े आयोजनों की वह शान हुआ करते थे।