न्यूज जंक्शन 24, बरेली।
कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से गर्भवतियों में डिप्रेशन, चिड़चिड़ापन और उदासी जैसी मानसिक परेशानी लगातार बढ़ रही है। पहले जहां 100 गर्भवतियों में 4 महिलाओं में यह लक्षण दिखते थे वहीं अब 30 फीसदी में यह परेशानी देखने को मिल रही है। जागरूकता के अभाव में घरवाले और खुद गर्भवती इसे समझ नहीं पाती और इसका सीधा असर गर्भ में पड़ रहे बच्चे पर पड़ता है। लगातार बढ़ रहे मामलों को देखते हुए जिला स्तर पर काउंसलरों को ट्रेंड किया जा रहा है। साथ ही आशा और एएनएम को भी इसके लक्षणो के प्रति संवेदनशील बनाने की कवायद चल रही है।
जिला अस्पताल के मनोचिकित्सक डा. आशीष बताते हैं कि मेडिकल साइंस में इसे पार्टम ब्लूज कहते हैं। इसमें गर्भवतियों के बर्ताव में धीरे-धीरे बदलाव होता है। उनमें गुस्सा, चिड़चिड़ापन, उदासी, किसी बात का जवाब नहीं देना, गुमसुम रहना जैसे बदलाव दिखने लगते हैं। यह एंजाइटी है पर अधिकांश लोगों को इसकी जानकारी नहीं है। लगातार 9 माह तक अगर गर्भवती इसी मानसिक अवस्था में रह जाती है तो इसका असर बच्चे पर आता है। 70 प्रतिशत से अधिक संभावना है कि वह भी इन सभी मानसिक परेशानी का शिकार होता है।
पहले ऐसे मामले कम आते थे लेकिन बीते कई माह से देखने में आ रहा है कि 10 में 3 महिलाओं को किसी न किसी तरह की एंजाइटी हो रही है। शहर के साथ ही ग्रामीण इलाके की गर्भवतियों में भी इस तरह की परेशानी देखने को मिल रही है।
आशा-एएनएम करेंगी लक्षणों की पहचान
जिला स्तर पर चल रहे मानसिक कार्यक्रमों में अब गर्भवतियों की काउंसिलिंग को प्राथमिकता में शामिल किया गया है। इसके लिए आशा और एएनएम को ट्रेनिंग दी जा रही है। उनको उन लक्षणों के प्रति संवेदनशील बनाया जा रहा है जो गर्भवतियों में दिखते हैं। आशा-एएनएम को जिम्मेदारी दी गई है कि अगर किसी गर्भवती में ऐसी परेशानी देखने में आती है तो उसे कम से कम एक बार काउंसिलिंग के लिए मन कक्ष या सीएचसी पर जरूर ले जाएं।
सीएचसी पर होगी काउंसिलिंग
मनोचिकित्सक डा. आशीष ने बताया कि जिले में 8 सीएचसी पर काउंसिलिंग शुरू हो गई है। पूरे साल का कार्यक्रम बनाया गया है। अगर किसी गर्भवती में एंजाइटी की समस्या है तो उसे कम से कम एक बार काउंसिलिंग के लिए जरूर सीएचसी पर ले जाएं। जिला अस्पताल के मन कक्ष में भी काउंसिलिंग हो रही है।
बच्चे पर पड़ता है ताउम्र असर
डा. आशीष ने बताया कि गर्भवस्था के दौरान मां के मन का बच्चे पर पूरा असर पड़ता है। मेडिकल साइंस में इस पर शोध भी हो चुका है। अलग-अलग परिवेश में रहने वाली गर्भवतियों के बच्चों का 20 साल तक फालोअप किया गया तो देखनेे में आया कि उनमें भी वही मानसिक भाव, परेशानी, अवसाद, विचार मिले जो गर्भावस्था के समय उनकी मां के मन में चल रहे थे।
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